Karva Chauth का व्रत पति की शुभकामना, सुख-समृद्धि और आयु वृद्धि के लिए होता है लेकिन केवल करवा चौथ व्रत रहने से ही ऐसा नहीं हो जाता उसके लिए आवश्यक है कि आप पतिव्रता के व्रत का पालन जीवनभर करें।
नमस्ते! राम-राम Whatever you feel connected with me. मैं ललित कुमार स्वागत करता हूँ आप सभी का और आशा करता हूँ कि आप अच्छे होंगे तथा अपने जीवन का निर्वाह चाहें जो परिस्थिति हो नम्रता के साथ कर रहे होंगे।
विषय सूची
करवा चौथ का व्रत क्यों रहते हैं?
Karva Chauth का व्रत विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए रहती हैं हालाँकि अविवाहित कन्याएँ अपने मन-पसंदीदा या फिर सुयोग्य वर की कामना के लिए भी करवा चौथ का व्रत रहती हैं।
करवा चौथ पूजा मुहूर्त
6:00PM – 7:00PM
करवा चौथ कब है?
13 अक्टूबर 2022
करवा चौथ व्रत का संकल्प
मैं इमलेश(अपना नाम) तन-मन धन अपनी सर्वस्व क्षमता से अपनी आत्मा को साक्षी मानकर गंगाजल को नमन करते हुए हाथ में लेकर कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करवा चौथ के व्रत का संकल्प लेती हूँ तथा अपने पति-परमेश्वर-स्वामी की दीर्घायु व सुख-समृद्धि के लिए देवी पार्वती से प्रार्थना करती हूँ और अगर मैंने स्वामी के मिलने के बाद तन-मन-धन से केवल स्वामी के बारे में ही स्मरण किया हो तथा किसी अन्य के प्रति गलत भावना क्षणभर भी ना आयी हो तो मैं आदिशक्ति आपसे सदा-सुहागिन रहने का वरदान माँगती हूँ।
करवा चौथ की पूजा कैसे करें?
Karva Chauth की पूजा जिस प्रकार आप करते आ रहे हैं ठीक वैसे ही करें किन्तु निम्नलिखित बताए गए नियमों में कोई नियम आपको अच्छा लगे तो आप अपनी पूजा में वह नियम भी शामिल कर लें; अगर आप पहली बार करवा चौथ का व्रत रह रहें हैं तो जैसा बताया गया है उसका अनुसरण करें।
- करवा चौथ व्रत के एक दिन पहले आपको हल्का खाना-खाना चाहिए।
- अपनी सज्जा-सजावट जैसे मेहँदी, नेल पोलिश, फेशियल आदि सभी आपको एक दिन पहले ही कर लेना चाहिए।
- यह व्रत ब्रह्ममुहूर्त अर्थात् सूर्य के उदय होने से पहले आरम्भ किया जाता है और चंद्रोदय अर्थात् चंद्रमा दर्शन के पश्चात् खोला जाता है। इस दिन सूर्योदय का समय 06:15AM है और चन्द्रोदय का समय 08:07PM है।
- अधिकतर स्त्रियाँ शाम को ही स्नान करती हैं ताकि उनको भूख न लगे किन्तु ऐसा नहीं करना चाहिए।
- सूर्योदय से पहले ही स्नान किया जाता है और रोज़मर्रा की तरह पूजा भी की जाती है तथा उसी समय अपने पति की दीर्घायु व सुख-समृद्धि के लिए करवा चौथ के व्रत का संकल्प लिया जाता है। शाम को आप पुनः स्नान कर सकते हो।
- यह व्रत अपने घर अर्थात् ससुराल में ही रहना चाहिए किन्तु किसी परिस्थिति के तहत आप अपनी माँ के घर भी रह सकते हैं लेकिन फिर पार्टनर साथ होना चाहिए। किसी विषम परिस्थिति में ही आप पति का फोटो देखकर या वीडियो कॉल से व्रत को खोल सकते हैं।
- करवा चौथ की पूजा चंद्रोदय से एक घण्टे पहले ही संपन्न कर ली जाती है। सम्पूर्ण शिव-परिवार की षोडशोपचार पूजा की जाती है।
- जहाँ आप पूजा करने वाले हैं वो दिशा पूर्व होनी चाहिए; आपका मुख पूर्व की तरफ और शिव परिवार का मुख आपकी तरफ होना चाहिए।
- सभी पूजन सामग्री आपकी थाली में होनी चाहिए जैसे चन्दन, कुमकुम, सिंदूर, रोली, धूप, अक्षत आदि तथा दीपक में पर्याप्त घी होना चाहिए जिससे दीपक चंद्र दर्शन के पश्चात् भी प्रज्वलित रहे।
- चंद्र दर्शन छलनी से किया जाता है और दर्शन करते समय चंद्रमा को अर्घ्य दिया जाता है तथा अर्घ्य देते समय चंद्रमा को तीन बार नमस्कार किया जाता है। चंद्रमा नमस्कार मंत्र “ओउम् सोम सोमाय नमः”।
- चंद्र दर्शन, पति दर्शन आदि बची हुई सभी क्रियाएं करनेे के पश्चात् बहु अपनी सास को फल, मिठाई, मेवे, धन, वस्त्र, सोलह श्रृंगार आदि देकर पूर्ण श्रद्धा के साथ सास के चरणों को स्पर्श किया जाता है तथा सासु माँ बहु को अखंड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देती हैं।
- सोलह श्रृंगार सुहागिन स्त्री को ही दिए जाते हैं।
- घर में सास ना होने पर नन्द को भी उपर्युक्त सामान दिया जा सकता है।
- दोनों के ना होने पर परिवार में जो स्त्री अपने से बड़ी जैसे जेठानी उपस्थित हो उसको दे सकते हैं अथवा कुछ ना होने पर किसी मंदिर में जाकर पुरोहित की स्त्री को दे सकते हैं।
- पूजा के समय आप करवा चौथ व्रत कथा को पढ़ सकते हैं तथा घर की सभी महिलाओं को इकट्ठा करके किसी भी समय करवा चौथ व्रत कथा को सुना भी सकते हैं।
पतिव्रता स्त्री
सतित्व का पालन करने वाली कुछ महान स्त्रियों का वर्णन किया जा रहा है जिससे कि आपके भावों को प्रखरता मिले:-
देवी अनुसुइया
सतियों में देवी अनुसुइया का स्थान सर्वोपरि है। देवी अनुसुइया प्रजापति कर्दम और देवहूति की पुत्री थीं। कर्दम और देवहूति की नौ पुत्री थीं जिनमें एक सती अनुसुइया भी थीं। सती अनुसुइया मुनिवर अत्रि की पत्नी थीं। देवी अनुसुइया की पति-भक्ति अर्थात् सतीत्व का प्रताप इतना था कि देवता भी उनको नमन करते थे।
श्री राम के वनवास के समय अत्रि मुनि की कुटिया में श्री राम, लक्ष्मण और माता सीता का आगमन हुआ था; तब देवी अनुसुइया ने माता सीता को पतिव्रत धारण करने का उपदेश दिया था तथा अखंड सौंदर्य की औषधि का निर्माण भी सिखाया था।
एक समय सरस्वती-लक्ष्मी-पार्वती में यह मतभेद हो गया कि सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता कौन है? त्रिमूर्तियों से पूछने पर उन्होंने कहा कि इस समय देवी अनुसुइया ही सर्वोपरि हैं। तीनों देवियों को संतुष्ट करने के लिए ब्रह्मा-विष्णु-महेश ने देवी अनुसुइया की परीक्षा लेनी की ठानी।
परीक्षा का निर्णय लेते ही तीनों देव साधुओं का रूप रख अत्रि मुनि की अनुपस्थिति में उनकी कुटिया में भिक्षा मांगने पहुँचे। देवी अनुसुइया ने देवों का आदर-सत्कार करते हुए भिक्षा देने लगी कि तभी देवों ने अपना प्रस्ताव रखा।
देवों ने कहा कि हे देवी अगर आप निर्वस्त्र होकर भिक्षा देंगी तभी हम भिक्षा ग्रहण करेंगे। यह जानकर देवी असमंजस में पड़ गयीं और विचारने लगीं।
कुछ क्षण सोचने के पश्चात् देवी कहने लगीं, “यदि मैंने पति के समान कभी किसी दूसरे पुरुष को न देखा हो, यदि मैंने किसी भी देवता को पति के समान न माना हो, यदि मैं सदा मन-वचन-कर्म से पति की आराधना में ही लगी रही हूँ तो मेरे इस सतीत्व के प्रभाव से ये तीनों नवजात शिशु हो जाएं”। तीनों देव नवजात शिशु हो गए और देवी अनुसुइया का स्तनपान भी किया।
यही रायता जब अधिक फैल गया तो सरस्वती,लक्ष्मी और पार्वती की प्रार्थना पर तथा पति अत्रि के कहने पर देवी अनुसुइया ने तीनों देवों को मुक्त किया लेकिन प्रसन्न होकर देवों ने देवी को वरदान दिया कि हम अपने अंश रूप में आपके गर्भ से जन्म लेंगे तथा आपके पुत्र कहलाएंगे जिनको क्रमशः सोम, दत्तात्रेय और दुर्वासा के नाम से जाना जाता है।
देवी सीता
देवी सीता रामायण का प्रमुख पात्र हैं। माता सीता सतीत्व की शिक्षा देवी अनुसुइया से ली थी। इनके पतिव्रता धर्म के कारण ही रावण इनको छू न सका और जब रावण ने माता सीता का अपहरण किया तब सीता जी रावण की यथार्थ मंशा से अनभिज्ञ थीं।
माता सीता अपने प्रचण्ड सतीत्व के कारण ही लंका में हुई अग्नि परीक्षा को सफल कर सकीं। माता सीता के सतीत्व की वास्तविक शक्ति जानने के लिए आपको वाल्मीकि रामायण अवश्य पढ़नी चाहिए।
माता सीता ध्यान समाधि में प्रवीण राजा जनक की पुत्री थीं। किंवदंतियों के अनुसार माता सीता राजा जनक को हल चलाते समय एक संदूक में मिली थीं इसलिए जनक ने उनका नाम सीता रखा क्योंकि सीता का अर्थ होता है हल की नोक। माता सीता का जीवन दर्शन वर्तमान में स्त्रियों को धैर्य, शालीनता और स्वावलंबी होने का संदेश देता है।
माता सीता समृद्धशाली राजा जनक की पुत्री थीं अगर वो चाहती तो श्री राम को वनवास मिलने पर अपने मायके जा सकती थीं लेकिन उन्होंने पतिव्रत धर्म का पालन करना उचित समझा किन्तु आज की स्त्री थोड़ा सा मनमुटाव होने पर ही महीनों मायके रह आती हैं; उनमें भी कुछ महान स्त्रियाँ वो हैं जो विवाहित होते हुए भी, सबकुछ अच्छे चलते रहने पर भी किसी अन्य पुरुष के साथ पलायन कर लेती है।
देवी सीता को अपने चरित्र को लेकर लंका में भी अग्नि परीक्षा देनी पड़ी तथा अयोध्या वापिस आने पर कुछ समय पश्चात् जनता में उनके चरित्र के प्रति संदेह उत्पन्न हुआ तो पुनः वनवास जाना पड़ा किन्तु पतिव्रत धर्म नहीं छोड़ा और कुछ समय पश्चात् जब अयोध्या वापिस आयीं तो अपना अंतिम प्रमाण देते हुए धरती माँ की गोद में सो गयीं।
ये थी माता सीता की सहनशीलता तथा ऐसा था उनका धैर्य जो शायद आज आपके लिए नामुमकिन हो।
देवी सावित्री
सती सावित्री अपनी पति-भक्ति के बल पर ही अपने पति सत्यवान को यमराज से वापिस ले आयीं थीं। देवी सावित्री महान तत्वज्ञानी राजर्षि अश्वपति की इकलौती संतान थीं। भ्रमण के दौरान देवी सावित्री ने राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पति रूप में स्वीकार कर लिया था।
देवी सावित्री ने इस बात की जानकारी अपने पिता को दी तो राजा अश्वपति ने देवर्षि नारद जी को बुलाया तो नारद जी ने राजा से सत्यवान के अल्पायु होने की बात कही साथ-ही-साथ देवी सावित्री को भी समझाने का प्रयास किया कि वह सत्यवान से विवाह करने का हट त्याग दे किन्तु देवी सावित्री अपने हट पर अडिग रहीं क्योंकि सावित्री सत्यवान को मानसिक रूप से पति मान चूँकि थीं।
इधर राजा द्युमत्सेन का राजपाट छल से छीना जा चुका था। राजा अपनी पत्नी और पुत्र के साथ वन में एक कुटिया बनाकर रहा करते थे। समय के साथ राजा और पटरानी की आँखों की रोशनी भी चली गयी थी। सत्यवान अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा किया करता था। सत्यवान बड़ा ही सुशील और गुड़वान था।
देवी सावित्री के ना मानने पर उनका विवाह सत्यवान के साथ हुआ। विवाह होने के पश्चात् सती सावित्री ने ऐश-आराम की जिंदगी को त्याग कर साधारण वस्त्र धारण किए और सत्यवान के साथ कुटिया में ही रहने लगी। देवी सावित्री अपने पति और सास-ससुर की पूरे मन से सेवा किया करती थी। देवी सावित्री को तनिक मात्र भी इस बात का घमंड नहीं था कि वह एक राजा की बेटी है।
समय वितता गया और वह समय आ ही गया जब सत्यवान की मृत्यु निश्चित थी। देवी सावित्री को चिंता होने लगी; हर रोज की तरह सत्यवान शाम को चूल्हा जलाने के लिए वन से लकड़ी लेने चल दिया क्योंकि सावित्री को उस दिन भोर से ही घबराहट हो रही थी इसलिए हट करने पर सत्यवान ने सावित्री को अपने साथ चलने की अनुमति दे दी।
जैसे ही सत्यवान लकड़ी काटने के लिए पेड़ पर चढ़ा वैसे ही उसको चक्कर आने लगे तो वह नीचे आकर सावित्री के गोद में अपना सर रखकर सो गया और सावित्री अपने पल्लू से हवा करती रही। कुछ क्षण पश्चात् यमराज आए और सत्यवान के प्राण को अपने पाश में बाँधकर चलने लगे; वैसे ही सावित्री ने पूछा हे देव आप कौन है? और मेरे पति को कहाँ लेकर जा रहें हैं।
देव ने कहा, “मैं यमराज हूँ देवी: आपकी पति-भक्ति का तेज इतना प्रबल था कि मेरे दूत आपके पति के पास आ ना सके इसलिए मुझे स्वयं आना पड़ा, देवी आपके पति सत्यवान का समय पूर्ण हुआ अब आप लौट जाओ”। सावित्री ने कहा हे देव जहाँ पति का मार्ग वहीं मेरा मार्ग, पति के पीछे-पीछे चलना तथा उनका अनुसरण करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है क्योंकि इसी कर्म में मेरे जीवन की सार्थकता सिद्ध होती है।
यमराज देवी सावित्री के सतीत्व से पहले से ही परिचित थे किन्तु वार्तालाव के समय देवी सावित्री की बातों को सुनकर अत्यधिक प्रभावित हुए तथा प्रसन्न होकर सावित्री से बोले “मैं सत्यवान के प्राण तो वापिस नहीं कर सकता लेकिन आपके सतीत्व से प्रसन्न होकर मैं आपको तीन वरदान देता हूँ— मांगों देवी क्या वर माँगती हो।
सती सावित्री ने यमराज से पहला वर मांगा कि मेरे सास-ससुर की आँखों की रोशनी आ जाए, यमराज बोले तथास्तु। फिर देवी ने दूसरा वर मांगा कि मेरे ससुर का छीना हुआ राजपाट पुनः मिल जाए, यमराज ने ये भी दिया और कहा मांगों देवी अपना तीसरा वरदान; तब देवी ने कहा कि मैं सत्यवान से सौ संतानों की माँ बनूँ—– यमराज ने कहा तथास्तु।
यमराज ने कहा जाओ देवी अब अपने घर वापिस जाओ फिर सती सावित्री ने कहा हे यमराज आप सत्यवान को तो लेकर जा रहें हैं फिर मैं आपके द्वारा दिया गया तीसरा वरदान किस प्रकार सफल करुँगी। देव फस गए और अपने वचनों के अनुसार उनको सत्यवान के प्राण छोड़ने पड़े तथा देवी सावित्री की कुशाग्र बुद्धि से प्रसन्न होकर देवी को अखंड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद भी दिया।
तीनों कथाओं का सार
इतिहास के पन्नों में ऐसी कई महान स्त्रियाँ है जो अपने सतीत्व के कारण जानी जाती है। उन सभी का जीवन दर्शन वर्तमान को यही शिक्षा देता है कि एक स्त्री के लिए पतिव्रत धर्म ही सर्वोपरि है। एक स्त्री ही है जो परिवार को बना देती है और उसमें यह सामर्थ्य भी है कि परिवार को जमीन में मिला दे, स्त्री के अवगुण ही ना केवल अपना बल्कि उससे सम्बंधित सभी सदस्यों का सर्वनाश भी कर देते हैं तथा उसके गुणों के कारण देवता भी उस घर में निवास करते हैं और नमन करते हैं।
पति में अवगुण होने पर भी अंतिम फैसला पति का ही मान्य होता है लेकिन पति के अवगुणों को सुधारने का प्रयास पत्नी को अवश्य करना चाहिए जैसे देवी मंदोदरी किया करती थीं लेकिन साथ हमेशा रावण के ही रहीं चाहें परिणाम कुछ भी क्यों न हुआ हो, अगर रावण सत्कर्म में अग्रणी होता तो मंदोदरी का सतीत्व उसको इतिहास के पन्नों में अमर कर देता। तुलसीदास की पत्नी हुलसी के कारण ही वो श्री राम भक्ति में लीन हुए नहीं तो सदा पत्नी के पल्लू से ही लिपटे रहते और उनको आज कोई न जानता।
अगर आप ऐसी ही महान स्त्रियों के बारे में जानना चाहते हैं तो कमेंट करिए तथा बताइए मुख्य रूप से कि किस के बारे में सबसे पहले जानना चाहते हैं, मैं जल्द-से-जल्द बताने का प्रयास करूँगा।
करवा चौथ की कथा
एक साहूकार के सात बेटे और एक बेटी थी जिसका नाम करवा था। करवा का विवाह हो गया था इसलिए करवा प्रत्येक चौथ अर्थात् चतुर्थी को गणेश भगवान का व्रत रहा करती थी और चंद्रमा को अर्घ्य देकर ही व्रत खोला करती थी। चौथ का व्रत करवा अपने परिवार की सुख-समृद्धि व पति की लंबी आयु के लिए रहा करती थी। एक बार करवा अपने मायके गयी हुई थी तो मायके में ही चतुर्थी का दिन आ गया इसलिए करवा ने चौथ का व्रत अपने मायके में ही रहने के बारे में सोचा।
भोर होते ही करवा ने गणेश जी को समर्पित चतुर्थी का व्रत विधि पूर्वक प्रारम्भ कर दिया। शाम तक सबकुछ सही चल रहा था लेकिन शाम होते ही करवा के माता-पिता, सात भाई और उनकी पत्नियां भोजन के लिए इकट्ठे हुए तो भाइयों ने अपनी बहन करवा से भोजन करने को कहा किन्तु करवा ने ये कह कर मना कर दिया कि मैं चंद्रमा को अर्घ्य देने के पश्चात् ही भोजन करुँगी और अभी चंद्रमा निकला नहीं है इसलिए मैं अभी भोजन नहीं करूंगी।
करवा को भूख से तड़पता भाइयों से देखा नहीं गया और एक भाई दूर कहीं पेड़ पर दीपक जला कर रख दिया और भाइयों ने करवा से कहा—बहिन देखो चंद्र निकल आया है चलो अर्घ्य दे दो और भोजन कर लो। बहिन से भाइयों की चतुराई समझी ना गई और उसने दीपक को चंद्रमा समझकर अर्घ्य दे दिया तथा भाइयों के साथ भोजन करने को चली।
करवा ने पहला निवाला तोड़ा तो उसमें बाल निकल आया फिर उसने दूसरा निवाला तोड़ा तो करवा को छींक आ गई और वो निवाला करवा के हाथ से गिर गया फिर करवा ने तीसरा निवाला तोड़ा और मुहँ में रखा ही था कि उसके ससुराल से पति के स्वर्गवास सिधारने की खबर आ गई। करवा ने अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं करने दिया और करवा ने अब पूर्ण निष्ठा से अपने ससुराल में प्रत्येक चौथ को व्रत सम्पन्न किया तथा कुछ समय पश्चात् यमराज ने करवा के पति के प्राण लौटा दिए।
करवा के नाम पर ही कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करवा चौथ का व्रत स्त्रियों ने प्रारम्भ किया तथा तब से अभी तक यह रिवाज बरकरार है। चौथ को करवा को अशुभ संदेश मिला था इसलिए अधिकतर देहात व कस्बा में बुजुर्ग चौथ को अपने घर से कहीं जाने नहीं देते। चतुर्थी को भगवान गणेश का जन्म हुआ था इसलिए चतुर्थी या चौथ का व्रत भगवान गणेश को समर्पित है।
आभार प्रकट
Karva Chauth के इस लेख को संगृहीत करने में जिन-जिन महिलाओं ने अपने विचारों को बेझिझक मेरे समक्ष प्रस्तुत किया उन सभी का मैं तहेदिल से आभार प्रकट करता हूँ। इसके साथ-साथ मैं आपसे गुजारिश करता हूँ कि अगर आपके पास भी किसी विषय के संदर्भ में कोई विचार हों तो आप मुझसे साझा कर सकते हैं मैं आपके विचारों को प्रकाशित करूँगा तथा आपकी सहमति होने पर आपका नाम भी उजागर करूँगा।
लेख को अंत तक पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद!
नमस्ते
1 thought on “अगर आप पतिव्रता नहीं तो करवा चौथ का व्रत आपके लिए नहीं।”