Guru Ka Mahatva – गुरु की महिमा समझने के लिये श्रद्धा और धैर्य होना अतिआवश्यक है। गुरु के बिना जीवन अधूरा है क्योंकि गुरु हमको सत्य सिखाता है।
अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम तत पदम् दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः
अर्थात:- जो कण-कण में व्याप्त है, सकल ब्रह्मांड में समाया है, चर-अचर में उपस्थित है, उस प्रभु के तत्व रूप को, जो मेरे भीतर प्रकट कर, मुझे साक्षात दर्शन करा दे उन गुरू को मेरा शत-शत नमन है। वही पूर्ण गुरू है जो परम सत्ता के बारे में बतलाता है, परम सत्ता जो निर्जीव और सजीवों को विश्व में व्यवस्थित करता है; मैं ऐसे गुरु को प्रणाम करता हूँ।
गुरु के बिना जीवन अधूरा
Guru ka Mahatva समझने के लिए यहाँ हम एक पल के लिए साधना के क्षेत्र से बहार आते है, और सामान्य जीवन में गुरु का महत्व (Guru Ka Mahatva) समझते है। सभी को पता है कि गुरू के बिना जीवन अधूरा है। ऐसा क्यों? तो इसका सीधा-सीधा जबाव कि गुरू हमको सत्य सिखाता है। हम लोग भ्रम में पड़ जाते है कि गुरू आखिर है कौन? तो यह भ्रम में पड़ने का विषय तो है नहीं क्योंकि जो कुछ हमको हमारे जीवन में कुछ नया सीखने को मिले और जिसकी वजह से हमने जो नया सीखा, वह सिखाने वाला ही हमारा उस क्षेत्र का गुरू हो गया।
वह व्यक्ति भी हो सकता है, तुम्हारा रिश्तेदार भी हो सकता है, लोहा-लक्कड, सजीव-निर्जीव कुछ भी हो सकता है। कहने का मतलब केवल इतना है कि जिससे तुम्हें जो सीखने को मिले वो उस क्षेत्र का गुरू।
अब फेर है तो केवल हमारे समझने का कि गुरू के विषय को हम किस हद तक समझते है। क्या? गुरू को हमने मनुष्य रुप में अपने मस्तिष्क में सिमित कर रखा है कि एक मनुष्य गुरू हो सकता है। अगर ऐसा सोचना है तब तो अवश्य ही आवश्यकता है आपको एक मनुष्य रुपी शरीर को गुरू बनाने कि अन्यथा आपके अन्दर अगर है सामर्थ्य तो बना लो पत्थर को गुरु और उस पत्थर में विचारों-भावों के ऐसे प्राण फूँको कि बन जाये तुम्हारे लिए वही भगवान।
लेकिन आज के समय में ऐसा कर पाना एक तरह से बिना साँस के जी के रह पाने के बराबर है। इसलिए हम एक या किसी ऐसे योग्य व्यक्ति को ढूंढते है जिससे कि उसको हम अपना गुरु बना सके। वास्तविकता में तो यह है कि हम लोग चमत्कार देखना पसंद करते है, इसलिए हम एक चमत्कारी गुरु ढूंढते रहते है लेकिन सत्य में वो मेरे शब्दों में चमत्कारी की बजाय जादूगर कहना उस अमुक व्यक्ति को अधिक उचित रहेगा। देखो! गुरू के विषय को जितना सुलझाते हुए समझने का प्रयत्न करोगे उतना ही ये विषय उलझते हुए समझने में फेर पैदा करेगा, क्योंकि यह विषय है ही इतना टेडा-मेडा कि इसको आसान तरीके से समझ पाना बहुत मुश्किल है।
गुरु है ब्रह्म
गुरु ब्रह्म के बराबर है। अब यहां पर एक शास्त्रानुगत बात याद आ गयी जो आप लोगों को भी बताता हूँ। “एक बार महर्षि वशिष्ठ ने गणेश जी से पूछा कि है देव आप तो उस परम शक्ति के अंश हो जिसके ज्ञान-संज्ञान से कोई चीज़ बहार नहीं तो आप मुझको ब्रह्म क्या है? इसको बताने कि असीम कृपा करें। गणेश जी इस वाक्या को सुनकर एक पल शांत रहे तब कुछ क्षण पश्चात उन्होंने कहा —– ‘जिज्ञासु अथासु ब्रह्म’
अर्थात् जिज्ञासा का भण्डार अथाह है उस की कोई सीमा नहीं है। एक जिज्ञासा का समापन हुआ तो व्यक्ति के जीवन में दूसरी जिज्ञासा का उद्भव हो जाता है। इसी प्रकार यह क्रिया हमारे जीवन में निरन्तर जीवन पर्यन्त तक चलती रहती है। जिस प्रकार जिज्ञासा का कोई अंत नहीं उसी प्रकार ब्रह्म का भी कोई अंत नहीं। ब्रह्म के बराबर ही गुरू का पायदान है इसलिए इस विषय को केवल शब्दों में समेट के समझ पाना बहुत मुश्किल है।
व्यक्ति के जीवन में सबसे पहले गुरू उसकी माता होती है। उसके बाद उसका विद्यालय का गुरू तत्पश्चात उसके आस-पास का वातावरण गुरु। यह गुरु क्रिया व्यक्ति के परिस्थिति के अनुसार बढ़ती रहती है। गुरु हम अपने साथी को नहीं मान सकते क्योंकि गुरु के साथ एक आदर्श की भावना जुड़ी होती है। यह आदर्श की भावना हम अपने साथी या किसी सामान्य व्यक्ति के साथ नहीं जोड़ सकते इसलिए हम एक विशिष्ट व्यक्ति का चयन करते है गुरु के लिए।
अब समयानुसार समस्या ये है कि व्यक्ति अपना गुरु उसको बनाना चाहता है जो विशिष्ट, योग्य होने के साथ-साथ चमत्कारी भी हो; अब चमत्कारी व्यक्ति कहाँ से आये। अतः गुरु किसी ऐसे व्यक्ति या, सजीव या निर्जीव को बनायो जिसके अन्दर आप अपनी पूर्ण श्रद्धा दे पायें तथा आदर्श की भावना जिसके साथ जोड़ पायें। यहाँ मैंने निर्जीव का भी नाम लिया तो यहां पर एक कहानी सुनाता हूँ आपको।
तो आइये! चलते है जरा महाभारत की तरफ़, “एकलव्य का नाम याद है आपको बेशक याद होगा, उसको शिक्षा द्रोणाचार्य ने नहीं दी थी लेकिन एकलव्य ने उनकी प्रतिमा बनाकर तथा उनको अपना आदर्श मानकर और उस प्रतिमा के अन्दर अपनी पूर्ण श्रद्धा झोंककर शिक्षा ग्रहण उस प्रतिमा से की थी। वो तो दुर्भाग्य एकलव्य का, या फिर यूं कहिए कि लालछन लगना था द्रोणाचार्य के चरित्र पर नहीं तो एकलव्य से बड़ा शायद ही उस समय का कोई अन्य धनुर्धारी होता”।
इस कहानी का पूरा सार आप समझे वो ये है कि एकलव्य इतना सामर्थ्यवान, गुणवान या शब्दों के मुताबिक जो कहिए सो वो था कि उसने एक प्रतिमा के अन्दर अपनी श्रद्धा अर्पण की और उस प्रतिमा को चैतन्य अवस्था में लाकर शिक्षा ग्रहण की। उसी तरह आप भी पत्थर को गुरु बनाकर अपने जीवन को सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा सकते है बशर्ते आप में होना चाहिए इतना दम कि डाल दो उस पत्थर में दम, अन्यथा सब व्यर्थ है ऐसा करना।
अन्ततः गुरु के साथ भावनाओं का जोड़ना है अति आवश्यक अब ऐसा क्यों? संक्षेप में कहें तो हर वो व्यक्ति जिससे हम कुछ भी सीखते है तो वह गुरु हुआ, अगर हम मानें तो। अगर ना मानें तो किसी का कोई गुरु नहीं, हम स्वयं अपने-आप के गुरु है; और यही आज का समय है कि कोई किसी के आगे झुकना नहीं चाहता।
अरे! यहां चाहने की बात तो दूर, जानता भी नहीं कोई सम्मान देना। अरे वो तो एकलव्य था जिसने अपने बल से प्रतिमा में जान फूँकी थी किन्तु यहां हम आज के समय की बात कर रहें है। यहां हम जिन्दा जीते-जागते प्रत्यक्ष व्यक्ति को सम्मान नहीं दे पाते; समझ नहीं आता कमी हमारे संस्कारों की है या किसी और की पर जो भी वजह हो यथार्थ यही है कि कोई किसी से कम नहीं तब क्यों झुकूँ मैं तुम्हारे सामने क्यों दूँ तूमको आदर।
खैर! अब ये विषय नैतिकता कि तरफ जाये उससे पहले हम अपने विषय पर लौट कर आते है। हाँ तो; गुरु के साथ भावनाओं का प्रखर होना। अब इस तथ्य को समझने के लिए भी आपको एक कहानी सुननी पड़ेगी और वो ये है कि- ”एकबार नारद जी वैकुण्ठ लोक गये विष्णु भगवान के पास पहुँचकर नारद जी ने कहा भगवन आप मुझे अपने शरण में ले लो। तब भगवान ने कहा- तेरे लिए मेरे लोक में कोई जगह नहीं है। नारद जी आश्चर्यचकित होकर कहते है- क्यों भगवन।
भगवान ने कहा कि तू निगुरा है अर्थात् तेरा कोई गुरु नहीं। इसलिए पहले अपना कोई गुरु बनाकर आयो उसके बाद मेरे पास जगह मिलेगी आपको। नारद जी वहाँ से वापिस आये और यहाँ-वहाँ असमंजस में पड़कर व्यथित होकर घुमने लगे और मन-ही-मन सोचने लगे कि किसको गुरु बनायूँ मैं; मुझसे योग्यवान और ज्ञानी कौन है? मैं ब्रह्मा का पुत्र, वेदों का ज्ञाता, ज्ञान में निपुण मुझसे योग्यवान मुझे कौन मिलेगा? जिसको मैं गुरु बनायूँ।
जब इस समस्या का नारद जी को कोई समाधान नहीं मिला तब वापिस नारद जी भगवान विष्णु जी के पास पहुँचे और अपनी व्यथा सुनायी, तब भगवान ने कहा कि पृथ्वी लोक पर जायो तुम और वहाँ पर जो तुम्हें सबसे पहले मिले या दिखाई दे उसको अपना गुरु बना लेना। तब नारद जी आये पृथ्वी पर और उनको वहाँ सबसे पहले कुत्ता दिखाई दिया और उसी को नारद जी ने अपना पहला गुरु बनाया था। अतः नारद जी लौट कर वैकुण्ठ लोक गये और बताया भगवान को कि भगवन बना लिया है मैंने गुरु कुत्र (कुत्ते) को तब जाके वैकुण्ठ लोक में नारद जी को स्थान मिला था।”
कहानी का सम्पूर्ण मर्म/सार समझने की कोशिश करना, नारद जी के पास भले ही ज्ञान का अपार भंडार था किन्तु उन्होंने फिर भी अपनी श्रद्धा, आस्था तथा भावना का ऐसा समर्पण किया कि उसको योग्यवान और सामर्थवान बनाकर अपना आदर्श समझकर एक कुत्र को अपनी गुरु की पदवी पर रखा। इसी तरह अगर आपके पास सम्पूर्ण ज्ञान का भंडार है तब आप उसको गुरु बनायो जिसको आप अपने भावनाओं के बल पर बलशाली बना दो। अगर आप सामर्थवान है तो जैसे एकलव्य ने किया वैसे आप कर सकते हैं।
अतः साधना के क्षेत्र में Guru Ka Mahatva विशेष है क्योंकि उसके बिना कोई भी विधि-विधान पूर्ण रुप से कार्य नहीं करेगा। इस क्षेत्र में जो कुछ भी कहा गुरु ने; उसको पूरी तरह से जस-का-तस करना ही शिष्य का काम होता है। गुरु के वचनों पर शिष्य को संदेह नहीं करना चाहिए, जहाँ उसके मन में संदेह आया वहीं जातक मात खा जाता है। हाँ विचार-विमर्श अवश्य कर सकता है लेकिन संदेह नहीं कर सकता है।
साधना के क्षेत्र में बहुत सारी बातों को बताया जाता है जिनमें कुछ बातें ऐसी हो सकती है जो आपको पूर्णतया निरर्थक और पागलपन की लगेंगी, आपको ऐसा भी लग सकता है कि यह मुझे क्या बता दिया, इसको करने का तो कोई औचित्य ही नहीं है। लेकिन यह केवल आपको लग रहा है क्या पता आपको कि गुरु का उसके पिछे बताने का क्या उद्देश्य है। उस उद्देश्य तक आप अवश्य पहुँच सकते हैं और भलीभांति समझ भी सकते हैं कि ऐसा करने को मुझसे क्यों कहा? लेकिन, तर्क की कसौटी और संदेह का बीज उत्पन्न करके आप उस उद्देश्य से विमुख हो जायेंगे जो आपके साधना-सिद्धि के क्षेत्र में बहुत बड़ी रुकावट होगा।
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