वेदांग, वाग्मी और शौक चर्राने पर चर्चा।

Vedangas संस्कृत विषय से स्नातक के तृतीय वर्ष की कक्षा में एक विषय होता है जोकि “संस्कृत वांग्मय का इतिहास” है। चूँकि आजकल जो संस्कृत पठन-पाठन और परीक्षा की स्थिति है उसको देखते हुए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि निहायत ही घटिया पद्दति चलती है लेकिन इस पद्दति में भी इस बात पर अधिक ध्यान दिया जाता है कि विद्यार्थि कितना याद कर सकते हैं और मजबूरन विद्यार्थि को सफल होने के लिए काफी रटना भी पड़ता है।

वेदांगों का महत्व

Vedangas इसमें जो महत्वपूर्ण प्रश्न होते हैं उनमें से एक है “वेदांगों के नाम और उनका महत्व बताएं”। तो आज का यह लेख इसी को समर्पित है; इस सवाल के साथ समस्या ये होती है कि व्याकरण और ज्योतिष वेदांग होंगे, ये तो आसानी से याद रहता है। बाकि के चार में से छन्द एक है ये परीक्षा में जैसे तैसे याद आता है। इसके आगे के तीन बड़ी मुश्किल से याद आते हैं। इस समस्या को सुलझाने के लिए हम लोग याद रखते हैं कि छन्द को वेदों का पैर, कल्प को हाथ, ज्योतिष को नेत्र, निरुक्त को कान, शिक्षा को नाक और व्याकरण को मुख कहा गया है।

वेद के 6 अंग

इस तरह शरीर के छह अंगों को मिलाकर हम इस प्रश्न का उत्तर याद रखते हैं। किसी भी परीक्षा के वेदांग वाले प्रश्न में किसी का भी लिखा हुआ उत्तर देख लेंगे तो ये वाक्य लिखा मिलेगा ही मिलेगा – छन्द को वेदों का पैर, कल्प को हाथ, ज्योतिष को नेत्र, निरुक्त को कान, शिक्षा को नाक, व्याकरण को मुख कहा गया है। अब सवाल है कि वेदों को आखिर इन छः हिस्सों में बाँटने की जरूरत ही क्यों पड़ती है? एक तो ये जानकारी को “स्पेशलाइज” कर देता है। दूसरे हम किस हिस्से पर अधिक पकड़ रखते हैं, ये वेद सिखाने वालों को भी समझ में आता है।

Vedangas – वेद के 6 अंग

शिक्षा वेदांग

वेद के मन्त्रों के उच्चारण की विधि “शिक्षा” में बताई जाती है। ये वेदांग का पहला भाग है जिसमें स्वर-वर्ण आदि के उच्चारण की शिक्षा दी जाती है। इतनी सदियों तक जब बर्बर कबीलाई आक्रमणकारी और धर्म परिवर्तन के लिए आये हमलावर जब पुस्तकों को जला रहे थे, तब भी वेद अपने मूल रूप में बचे रहे क्योंकि “शिक्षा” नाम का वेदांग था। इसके जरिये बिलकुल पक्का-पक्का उच्चारण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी बढ़ता रहा। सर काटकर सवा मन जनेऊ जलाने की घटनाओं के बाद भी वेद पूरा-पूरा रटकर बैठे प्रत्येक व्यक्ति की हत्या संभव नहीं हो पाई इसलिए वेद अपने मूल रूप में बचे रह गए।

कल्प वेदांग

किस वैदिक कर्म में कौन से मन्त्र का प्रयोग होगा, ये “कल्प” नाम के वेदांग से पता चलता है। अब इसकी तीन शाखायें होती हैं- श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र। यज्ञों से सम्बंधित नियम “कल्प” में बताये जाते हैं। कल्प का मोटे तौर पर अर्थ हिस्सा भी लगाया जा सकता है। यानि कौन सा मन्त्र किस हिस्से का है, ये कल्प से पता चलता है। वैदिक ग्रन्थ अपने सही क्रम में रहें, ये “कल्प” से सुनिश्चित हो पाया।

व्याकरण वेदांग

इसके बाद व्याकरण आता है। शब्दों के उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध व्याकरण से होता है। संस्कृत भाषा के शुद्ध रूप का पता लगाने के लिए व्याकरण वेदांग का अधययन किया जाता है। अपनी इसी विशेषता के कारण ही यह वेद का सर्वप्रमुख अंग माना जाता है। इसके मूलतः पाँच प्रयोजन हैं – रक्षा, ऊह, आगम, लघु और असंदेह।

निरूक्त वेदांग

इसके बाद “निरुक्त” की बारी आती है। इससे शब्दों का अर्थ समझा जाता है। शब्दों का प्रयोग जिन-जिन अर्थों में किया गया है, वो सभी अलग-अलग अर्थ “निरूक्त” के जरिये बताये जाते हैं। आज की शिक्षा पद्दत्ति से तुलना करें तो “लिंग्विस्टिक्स” में शायद शिक्षा, व्याकरण और निरुक्त तीनों मिलकर साथ आएंगे।

ज्योतिष वेदांग

यज्ञ और अन्य आयोजनों के लिए समय-घड़ी का भी देखना होता है इसलिए वेदांग का एक हिस्सा “ज्योतिष” है जिसके माध्यम से समय का पता लगाना सम्भव है। वेदांग ज्योतिष एक प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थ है जोकि लगध मुनि द्वारा लिखित है लेकिन इसके रचना काल के बारे में अत्यधिक मतभेद हैं। किन्तु यह कहना अनुचित नहीं होगा कि यह विश्व का सबसे पुराना ज्योतिष ग्रंथ है और यही ग्रंथ ज्योतिष का आधार है। ज्योतिष कालविज्ञापक वेदांग है।

Vedangas
Lalit Kumar Astrologer

इसके संदर्भ में आर्चज्यौतिषम् के ३६वें पद्य तथा याजुषज्याेतिषम् के तीसरे पद्य में कहा गया है कि—

वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः। तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञान्॥

प्राचीनकाल में वेदों के अलग-अलग ज्योतिषशास्त्र थे। उनमें से सामवेद का ज्यौतिषशास्त्र अब उपलब्ध नहीं है लेकिन बाकी तीनों वेदों के ज्योतिष शास्त्र उपलब्ध हैं।

  1. ऋग्वेद का ज्यौतिष शास्त्र – आर्चज्याेतिषम्: है जिसमें ३६ पद्य हैं।
  2. यजुर्वेद का ज्यौतिष शास्त्र – याजुषज्याेतिषम्: है जिसमें ४४ पद्य हैं।
  3. अथर्ववेद ज्यौतिष शास्त्र – आथर्वणज्याेतिषम्: है जिसमें १६२ पद्य हैं।

इसमें ऋग्वेद और यजुर्वेद ज्योतिष शास्त्र के प्रणेता लगध मुनि हैं लेकिन अथर्ववेद के ज्योतिष शास्त्र के प्रणेता का पता नहीं है। ज्योतिषशास्त्र को ‘त्रिस्कन्ध’ भी कहा जाता है क्योंकि इसके तीन स्कन्ध या खंभे हैं जोकि क्रमशः हैं सिद्धान्त, संहिता और होरा। इस संदर्भ में कहा गया है—

सिद्धान्तसंहिताहोरारुपं स्कन्धत्रयात्मकम्।वेदस्य निर्मलं चक्षुर्ज्योतिश्शास्त्रमनुत्तमम् ॥

वेदांगज्याेतिष मूलतः सिद्धान्त ज्याेतिष है, जिसमें सूर्य तथा चन्द्र की गति का गणित है। वेदांगज्योतिष में गणित के महत्त्व का प्रतिपादन याजुषज्याेतिषम् ४ के तहत इन शब्दों में किया गया है-

यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्वद् वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम्॥

अर्थ : जिस प्रकार मोरों में शिखा और नागों में मणि का स्थान सबसे उपर है, उसी प्रकार सभी वेदांगशास्त्रों मे गणित का स्थान सबसे उपर है। इससे यह पता चलता है कि उस समय ‘गणित’ और ‘ज्योतिष’ समानार्थी शब्द थे।

छंद वेदांग

अंत में आते हैं “छन्द”। हर मन्त्र का अपना एक छन्द होता है। यानि अक्षर और मात्राओं की गिनती तय होगी। किसी किस्म की हेरफेर, अक्षर-मात्राओं को बदल देने को वैदिक मन्त्रों का छन्दों में होना, अत्यंत कठिन बना देता है। उदाहरण के तौर पर आप देख सकते हैं कि आजकल जो हिंदी कविता लिखी जाती है, वो बेतुकांत होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि बेतुकांत कविता लिख डालना आसान होता है वरन् किसी पञ्चचामर छन्द की तुलना में जैसे:-


“हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती –
स्वयंप्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती –“


ऐसी कोई कविता लिख देने कहा जाये, या अनुष्टुप, गायत्री जैसे किसी छन्द में लिख देने को कहा जाए तो हम हाथ खड़े कर देंगे। शिव तांडव इसी कठिन पञ्चचामर छन्द में रचित है। तुलसीदास, कबीर, रैदास जैसा कुछ दोहा-चौपाई में रच देना भी आसान काम नहीं होता।

वाग्मी का अर्थ क्या है?

विश्व की सबसे प्राचीन रचना होने पर भी वेद अभी तक अपने मूल स्वरुप में ही बचे रहे। विश्व धरोहर को इतनी सदियों तक बचाकर रखने के लिए जिनकी प्रशस्ति होनी चाहिए थी उन्हें आमतौर पर इसके लिए गालियाँ पड़ती रहीं क्योंकि बर्बर कबीलाई हमलावर धर्म परिवर्तन के लिए जुटे थे और उनकी फेंकी बोटियों पर पलने वाले गाली-गलौच करने वाले भी समाज में उपस्थित थे। वैसे इतने वेदांगों को पढ़ने सीखने में 15-20 वर्ष लगेंगे लेकिन ये अनुमान लगाना कठिन ही होगा? जो इन सभी छः भागों को पढ़ चुके और पढ़ते-पढ़ते अपने से छोटों को सिखाते भी रहे उन्हें वाग्मी कहते हैं। वाग्मी का अर्थ ये भी होगा कि वो शास्त्रार्थ में निपुण हैं।

वाग्मी की दिनचर्या

वाग्मी बनने के लिए गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करनी होती है। गुरुकुल सामान्य स्कूलों से थोड़े अलग होते हैं क्योंकि बच्चे वहाँ परिवार से दूर गुरुओं के पास रहते हैं और आम स्कूलों की तरह वहाँ से बच्चे गर्मी-जाड़ों की छुट्टियों में घर नहीं लौट पाते हैं बल्कि वर्षों गुरुकुल में ही भिक्षाटन करते पढ़ते रहते हैं और अपने गुरूजनों को अपना सर्वस्व मानते हैं तथा उनका आदेश उनके लिए सर्वोपरि होता है। सुबह ब्रह्म मुहूर्त में यानि साढ़े तीन–चार बजे के आसपास उनकी दिनचर्या आरंभ होती है। इतनी सुबह प्रतिदिन जागने के नाम पर ही हम इनकार कर देंगे।

हर दिन इसी समय ताजे पानी से इनको नहाना होता है लेकिन यदि हमको नहाने कह दिया जाए तो हम वापस कुश्ती लड़ने को आसान काम मानकर पतली गली से निकल लेंगे लेकिन इतने पर रुकने के बदले वाग्मी बनने के लिए इसमें संन्यास का विषय और जोड़ लीजिये। वाग्मी होने के साथ-साथ सन्यासी भी हो तो ये शंकराचार्य बनने की प्रमुख अहर्ताएं हैं अर्थात्‌ वाग्मी+सन्यास=शंकराचार्य जैसा जीवन। अब ऐसा भी नहीं है कि जो वाग्मी हो और सन्यासी भी हो वो शंकराचार्य बन जायेंगे।

शौक चर्राना क्या होता है?

कभी कभी “शौक चर्राता” है अर्थात्‌ एक ऐसे शौक का अचानक जागना होता है जिसके बारे में हमें जानकारी तो रत्ती भर भी नहीं होती लेकिन अचानक वो काम करना होता है। ऐसे काम जो बरसों के अभ्यास से सीखे जाते हैं उनको पलक झपकते बिलकुल पेशेवर स्तर पर करना होता है। ऐसा शौक अगर जागे तो उसे शौक चर्राना कहा जाता है। जैसे ये लेख पढ़कर मेरे जैसे लोग वाग्मी बनने के बारे में सोचेंगे और कई लोग बहुत सारे ग्रंथ कल ही खरीद लाएंगे; कई तो सुबह चार बजे उठना प्रारम्भ कर देंगे लेकिन कब तक ये नहीं पता?

अब अगर स्टैम्प या सिक्के जमा करने का शौक हो या फिर कई किताबें इकठ्ठा कर लेने का शौक हो तो शौक का चर्राना फिर भी चलता है। कई चीजें ऐसी होती हैं जिनका शौक चर्राये तो उस विधा की थोड़ी बहुत जानकारी रखने वालों को भी बड़ा अजीब लगता है। जैसे एक बड़ा अच्छा सा शौक हो सकता है कि पेड़ लगाने का हो! बहुत अच्छा शौक है जो सभी को होना चाहिए। पर्यावरण का भला होता है और इससे हम अगली पीढ़ी के लिए कुछ छोड़कर जाते हैं। लेकिन, किन्तु, परन्तु, अगर बिना कुछ किये ही अचानक ये शौक चर्राये तो क्या होगा?

जिन्हें अचानक ये शौक चर्राता है वो अजीब हरकतें करने लगते हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था, सबसे पहले तो मुझे यही समझ में नहीं आया था कि जैसे पालतू पशु होते हैं वैसे ही पौधे भी पालतू होते हैं। जैसे हर पशु को पाला नहीं जा सकता वैसे ही हर पौधा भी पालतू नहीं होता लेकिन मुझे इस बात का ज्ञान आगे चलकर हुआ। सरसों, फूलगोभी, पत्तागोभी से लेकर मकई तक कई पौधे मनुष्यों ने सदियों के अभ्यास से पालतू बना लिए हैं। अगर हमको पेड़ लगाने ही हैं तो आम, जामुन, कटहल जैसे कई फलदार पौधे हैं। छायादार या लकड़ी के लिए लगाए जाने वाले पौधे भी हैं। सजावटी पौधे भी लगाए जा सकते हैं।

अंदाजा न हो तो सोचिये कि दो ही दशक पहले जब बेर और बेल जैसे फल उतने बिकते नहीं थे तब वो कैसे होते थे? सहजन का पौधा कैसे होता था? बेर में बिलकुल छोटे-छोटे फल होते थे। अभी जैसे बड़े बेर नहीं होते थे। बेल का फल टेढ़ा मेढ़ा भी हो सकता था, अभी जैसा गोल सुगढ़ बड़ा सा बेल नहीं होता था। सहजन बारहों महीने नहीं होती थी, उसके पेड़ पर एक कीड़ा भी रहता था, जिसे छूते ही खुजली होती। इन्हें तो भारतीय लोगों ने अभी हाल में ही— ढंग से पालतू बनाया है।

पेड़ लगाने का शौक चर्राना

कभी-कभी हमें पेड़ लगाने का शौक चर्राता है और हम अक्सर ऐसे पौधों को लगाने की कोशिश करते हैं जो अभी पूरी तरह पालतू नहीं हुए हैं। ऐसे पेड़ों में सबसे प्रमुख हैं चन्दन और रुद्राक्ष। ये पौधे हम बेचारे खरीदकर लाते हैं और लगाने की कोशिश करते हैं लेकिन ये भूल जाते हैं कि चन्दन करीब करीब परजीवी पौधा होता है जो जंगल के बाहर लगाने की कोशिश करने पर अकेला जीता ही नहीं है। ऊपर से पेड़ लगाने का बीस साल का अनुभव न हो तो हम बच्चे हैं।

इसलिए भी ये पेड़ हमसे लगता ही नहीं है अर्थात्‌ पेड़ दीर्घायु नहीं होता बल्कि लगाने के दो-चार दिन बाद ही सूख जाता है लेकिन यदि हम किसी अभ्यस्त व्यक्ति से पूछेंगे तो पता चलेगा कि चन्दन के पास ही एक नीम का पेड़ और एक कढ़ी पत्ते का पेड़ लगा देने से हमारा काम बन सकता है क्योंकि दो चार वर्ष बीतने के बाद नीम या कढ़ी पत्ते के पेड़ की जड़ें चन्दन की जड़ों से जा मिलेंगी। फिर चन्दन का पेड़ उनकी जड़ों से नाइट्रोजन ले सकेगा और संभव है कि वो बच जाये।

करीब-करीब ऐसा ही रुद्राक्ष के पेड़ के साथ भी होता है। ये इसलिए याद आया क्योंकि मातृभाषा दिवस पर अचानक हमको याद आएगा कि आने वाली पीढ़ी यानी अपने बच्चों को हम अपनी मातृभाषा नहीं सिखा रहे हैं और ये कोई अचम्भे की बात नहीं है क्योंकि ये भी काफी कुछ पेड़ लगाने का शौक चर्राने जैसा ही है। जैसे हम अपने घर संतरे, सेब या कभी-कभी काजू का पौधा लगा लेने की कोशिश करते हैं फिर काजू सड़ा हुआ सा फलता है और संतरा कुछ-कुछ नीम्बू जैसा। 😄😄😄

परिवेश के बिना हाल

अपने स्वाभाविक परिवेश के बिना जो दशा संतरे के पेड़ की होती है ठीक वैसी ही दशा मातृभाषा की भी होती है। जैसे संतरा पिद्दी सा फलता है, कुछ वैसा ही भाषा का भी होता है। भारत के बाहर जन्मे बालक का बोलना या सीखना शुरू करने वाले बच्चों की हिंदी में जैसे “डोगूना लगान डेना” पड़ता है, वैसा ही दूसरी भाषाओँ में भी होना स्वाभाविक है।

पेड़ सूख जाए या पनपे नहीं तो अमूमन ये सोचा जाता है कि मिट्टी ख़राब होगी या फिर पानी-खाद की मात्रा में घटा-बढ़ी हुई होगी अन्यथा मौसम की गड़बड़ी होगी। बिलकुल वैसे ही भाषा के संदर्भ में भी याद रखना होता है कि दोषारोपण बीज (बीज=मनुष्य जाति का वंश या पीढ़ी) पर नहीं करना चाहिए क्योंकि वो पीढ़ी बिलकुल बीज की तरह उतनी ही संभावनाओं से युक्त है/थी लेकिन हमने उचित परिवेश नहीं दिया ये हमारी गलती है।

वेद अपरिवर्तनीय है।

वेद को अपौरुषेय कहा गया है, अर्थात जिसकी रचना किसी पुरुष ने नहीं की । इसलिए इस ज्ञानराशि का एक-एक अक्षर अपरिवर्तनीय है। वेद (ऋक्, यजु, साम और अथर्व में विभक्त 4 वेद) के मूल पाठ यथावत् सुरक्षित रहें, उनमें कभी कोई मिलावट न हो सके और न ही कोई अंश लुप्त हो जाए, इसके लिए बहुत प्रारम्भ से ही ऋषियों ने इसकी पाठ-विधि का निर्धारण किया। इनमें 3 प्रकृतिपाठ और 8 विकृतिपाठ हैं।

संहितापाठ, पदपाठ और क्रमपाठ ये तीन प्रकृतिपाठ हैं और 1. जटा, 2. माला, 3. शिखा, 4. रेखा, 5. ध्वज, 6. दण्ड, 7. रथ और 8. घन— ये 8 विकृतिपाठ हैं। इन विविध पाठों के द्वारा वेदमंत्रों को नाना प्रकार से कंठस्थ करने के कारण ही वेद सृष्टि के प्रारम्भ से आजतक यथावत सुरक्षित हैं। उनमें एक अक्षर तो क्या, एक मात्रा का भी परिवर्तन नहीं हुआ है। सम्पूर्ण विश्व में ऐसी कोई उच्चारण-परम्परा ढूँढने से भी प्राप्त नहीं होती।

‘मधुशिक्षा’ नामक ग्रन्थ के अनुसार सर्वप्रथम श्रीभगवान् ही ने वेदसंहिता का दर्शन किया तथा उन्होंने इसका उपदेश दिया। इसी प्रकार पदपाठ के आद्य द्रष्टा रावण और क्रमपाठ के बाभ्रव्य ऋषि हैं। रावण कृष्णयजुर्वेद के आद्य भाष्यकार तो थे ही साथ में वेदों के सस्वर पाठ के आद्य प्रवर्तन ऋषि भी थे।

भगवान् संहितां प्राह पदपाठं तु रावणः। बाभ्रव्यर्षि क्रमं प्राह जटां व्याडिरवोचत्॥

“ये रावण कश्मीर के गोनन्द वंशी नरेश हैं”

प्रत्येक शाखा के पृथक् पदपाठ के ऋषि भी उल्लिखित हैं, यथा : ऋग्वेद की शाकलशाखा के शाकल्य, यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के आत्रेय तथा सामवेद की कौथुमशाखा के गार्ग्य ऋषि पदपाठ के द्रष्टा हैं।

निष्कर्ष

देखो! हम जो शिक्षा अपने बच्चों को देते हैं उसका मतलब सिर्फ धन कमाना ही होता है। सम्पूर्ण शिक्षा अर्थ के उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए ही होती है। समय के साथ समाज-संस्कार-वातावरण आदि सबकुछ परिवर्तित हो गया है और होता भी रहेगा। ज्यादा नहीं केवल 70 वर्ष पहले यानि यदि हम लगभग 40 वर्ष के हैं तो हमारे दादा जी के ज़माने में धन का मह्त्व नहीं था। उस समय किसी पर गन्ना तो किसी पर बैल तो किसी पर कोल्हू होता था और संयुक्त रूप से मिठाई बनती थी जो सभी में वितरित होती थी। उस समय बालक क्या अपना और क्या पराया सब बराबर होता था।

लेकिन आजकल सब रेडीमेड उपलब्ध है बस पैसा होना चाहिए किन्तु उस समाज में समय की माँग वही थी इसलिए पहले वचन का मोल था पर धन का नहीं। पहले ब्लाउज कोहनी से नीचे होते थे तो अब कंधे तक, आगे चलकर कुछ भी ना रहे ये भी कहना अनुचित नहीं होगा। अब शिक्षा हमने बच्चों को आधुनिक दी तो बच्चे बर्ताव भी आधुनिक ही करेंगे चूँकि पुराने समय के बुजुर्ग भी मौजूद होते हैं जो अपेक्षा करते हैं कि बालक संस्कारी होगा लेकिन अब समय की माँग आधुनिक तकनीकों का उपयोग करना और उनके बारे में जानकारी रखने की है।

इसलिए यदि ये भी अगर ना हो तो भी नुकसान आधुनिक पीढ़ी का ही होगा। उदाहरणतः बहुतायत बुजुर्गों को टच मोबाइल चलाना ही नहीं आता और ये वर्तमान समय के अनुकूल नहीं लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वो पढ़े-गुने नहीं किन्तु कईयों ने अपने आप को समय के अनुरूप ढाला भी है। ऐसी दशा में बुजुर्ग और आधुनिक पीढ़ी के मध्य सामंज्य स्थापित करने का एक ही रास्ता है कि बुजुर्ग समय के अनुरूप अपने को ढालने की कोशिश करें नहीं तो बालकों से संस्कारी होने की अपेक्षा ना करें।

क्योंकि आधुनिक शिक्षा ओपन रिलेशनशिप के संस्कार को बढ़ावा देती है ना कि संयुक्त परिवार में रहने की विचारधारा को विकसित करती है। फ़िलहाल समय की मांग धन का मोल होने की है फिर चाहें वचन जाए ऐसी-तैसी में; अभी थोड़ा-बहुत बुजुर्गों की वज़ह से गाँव-देहातों में वचन के मायने हैं भी तो कुछ और वर्षों पश्चात्‌ रहा बचा भी समाप्त हो जाएगा।

विनम्र निवेदन

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