ज्योतिष के अनुसार समय की गणना कैसे हुई।

Units of Time भारतीय ज्योतिष शास्त्र का इतिहास अत्यधिक प्राचीन है इसी प्राचीनतम इतिहास का ज्ञान भूतकाल के गर्भ में छिपा हुआ है। ऋग्वेद के श्लोकों में ज्योतिष की चर्चा की गई है इससे पता चलता है कि उस समय ज्योतिष का ज्ञान कितना रहा होगा। ज्योतिष का अध्ययन अनिवार्य था और जंगली-जातियों में भी ज्योतिष का थोड़ा-बहुत ज्ञान रहता ही था क्योंकि इसकी आवश्यकता उनको प्रतिदिन पड़ा करती थी इसलिए यहीं से समय की गणना करना मानव ने आरम्भ किया।

ज्योतिष का विशेष रूप से अध्ययन उस समय भी होता था इसका प्रमाण यह है कि यजुर्वेद में एक जगह ‘नक्षत्रदर्श’ अर्थात्‌ नक्षत्रों को देखने वाला=ज्योतिषी की चर्चा हुयी है और छांदोग्य उपनिषद में ‘नक्षत्र विद्या’ का उल्लेख है। इससे पता चलता है कि ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन उस समय भी होता था इसलिए अति प्राचीनकाल से वेद के 6 अंगों में ज्योतिष को गिना जाता रहा है।

प्राचीनकाल में ज्योतिष की आवश्यकता

Units of Time उस समय ज्योतिष की आवश्यकता किसानों को भी पड़ती थी और पुजारियों को भी। यों तो सभी को समय-समय पर कुछ बातों को जानने की आवश्यकता पड़ जाती थी जिसे ज्योतिषी ही बता सकते थे, परंतु किसान विशेष रूप से जानना चाहता था कि पानी कब बरसेगा, और खेतों के बोने का समय आ गया या नहीं और पुजारी तो बहुत-सी बातों को जानना चाहता था। उस समय साल-भर तक चलने वाले यज्ञ हुआ करते थे और अवश्य ही वर्ष में कितने दिन होते हैं, वर्ष कब आरंभ हुआ, कब समाप्त होगा यह सब जानना बहुत आवश्यक था इसलिए मनुष्य ने समय की गणना करना आरम्भ की।

समय की इकाईयां

आजकल पंचांग इतना सरल हो गया है और उसके नियम इतने आसान हो गये कि कल्पना करना भी कठिन लगता है कि प्राचीन समय में इन सब बातों को जानने के लिए किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ा होगा। इसका अनुमान हम प्राचीन समय में समय की गणना कैसे होती थी? इस बात से लगा सकते हैं, प्राचीनकाल में समय को मापने की सामान्यतः तीन इकाईयां होती थी (Units of Time) जिनका विवरण कुछ इस प्रकार है:-

Calculation of time
Units of Time

पहली इकाई (1st Units of Time)

प्राचीनतम मनुष्य ने भी देखा होगा कि दिन के पश्चात रात्रि, रात्रि के पश्चात दिन होता है। एक रात-दिन ज्योतिष की भाषा में एक अहोरात्र और साधारण भाषा में केवल दिन। समय नापने की ऐसी इकाई थी जो मनुष्य के ध्यान के सामने बराबर उपस्थित हुई होगी। परंतु कई कामों के लिए यह इकाई बहुत छोटी पड़ी होगी। उदाहरणार्थ बच्चे की आयु कौन जोड़ता चलेगा कि कितने दिन की हुई और जोड़ेगा भी तो 100 दिन के बाद असुविधा होने लगी होगी।

दूसरी इकाई (2nd Units of Time)

सौभाग्यवश एक दूसरी इकाई भी थी जो लगभग इतनी ही महत्वपूर्ण थी। लोगों ने देखा होगा कि चंद्रमा घटता-बढ़ता है, कभी वह पूरा गोल दिखाई पड़ता है, कभी वह अदृश्य भी रहता है। एक पूर्णिमा से दूसरी तक, या एक अमावस्या से दूसरी तक के समय को इकाई मानने में सुविधा हुई होगी। यह इकाई एक मास या एक चंद्र मास कई कालों के नापने में सुविधाजनक रही होगी, परंतु सबके नहीं। कुछ लंबे समय की गणना करना जैसे मनुष्य की आयु मासों के द्वारा बताने में भी असुविधाजनक प्रतीत हुआ होगा इसलिए इससे भी बड़ी इकाई की आवश्यकता पड़ी होगी।

तीसरी इकाई (3rd Units of Time)

परंतु लोगों ने देखा होगा कि ऋतुएं बार-बार एक विशेष क्रम में आती रहती हैं – जाड़ा, गर्मी, बरसात फिर यही क्रम और सदा यही क्रम लगा रहता है, इसलिए लोगों ने बरसातों की संख्या बताकर काल-मापन आरंभ किया होगा। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि वर्ष शब्द की उत्पत्ति वर्षा से हुई है, और वर्ष के पर्यायवाची शब्द प्रायः सभी ऋतुओं से संबंध रखते हैं जैसे शरद्, हेमंत, वत्सर, संवत्सर, अब्द आदि। शरद् और हेमंत दोनों का संबंध जाड़े की ऋतु से है; वत्सर और संवत्सर से अभिप्राय है वह काल जिसमें सब ऋतुएं एक बार आ जाए। अब्द का अर्थ जल देने वाला या बरसात है।

वर्ष का आरम्भ वर्षा से क्यों

आपके मस्तिष्क में एक प्रश्न आया होगा कि वर्ष का आरंभ वर्षा से ही क्यों माना जाता था ग्रीष्म या शीत ऋतु से क्यों नहीं? तो वो इसलिए कि ग्रीष्म का आरंभ धीरे-धीरे होता है और शीत ऋतु का आरंभ भी इसी प्रकार किन्तु वर्षा का आरंभ मानसून आने के बाद एकदम से होता है। इसलिए वर्षा के आरंभ की गणना आसानी से हो सकती थी इसलिए वर्ष का आधार मानने के लिये वर्षा को उचित समझा गया। अब वर्षा एकदम आए या धीरे-धीरे लेकिन किसी दिन तो आएगी और जिस दिन आयेगी वह वर्ष का पहला दिन होगा।

जब वर्षा पुनः लौटकर अपने समय पर आयेगी तो वह दूसरा वर्ष होगा। इस प्रकार किसी मनुष्य की आयु बतायी जाये तो बता सकते हैं कि 74 वत्सर या संवत्सर (अर्थात्‌ 1 वत्सर या संवत्सर = एक बार वर्षा, एक बार जाड़ा और एक बार गर्मी) अर्थात्‌ 74 बार वर्षा (या 74 वर्ष का व्यक्ति) और अगर 5 महीने ऊपर हो गये हैं तो 5 चंद्र मास; 10 दिन भी ऊपर है तो 10 अहोरात्र इस प्रकार हुआ 74 वर्ष 5 माह 10 दिन का व्यक्ति किन्तु ये गणना कितनी सटीक थी इसके लिए अभी और गहनता से समझना होगा।

समय मापन प्रणाली

चूँकि अभी तक हम ज्योतिष को केन्द्र मानकर ही बात कर रहें हैं इसलिए समय मापन प्रणाली (Units of Time) को समझने के लिए भी ज्योतिष को ही केन्द्र मानेंगे अभी तक हमने समय की तीन इकाइयों के बारे में जाना लेकिन समय मापन प्रणाली को बनाने के लिये प्राचीनतम मनुष्य ने जब देखा होगा कि 1 महीने में लगभग 30 दिन होते हैं तो महीने में सटीक 30 दिन मानने में हमारे पूर्वजों को जरा भी संदेह नहीं हुआ होगा। पूर्वजों को महीने में 30 दिन का होना उतना ही स्वभाविक लगा होगा जितना दिन के बाद रात का आना। परंतु सच्चाई तो ये है कि 1 महीने में सटीक 30 दिन होते ही नहीं है।

सभी महीने एकदम बराबर भी नहीं होते। यहां तक कि सब अहोरात्र भी बराबर नहीं होते। इन सब इकाइयों की बारीकता का ज्ञान मनुष्य को बहुत बाद में हुआ। वर्तमान में भी जब एक सेकेंड के एक हजारवें भाग तक आधुनिक मनुष्य समय नाप सकता है और एक डिग्री के 2000 वें भाग तक कोण नाप सकते हैं। फिर भी, इन इकाइयों का इतना सटीक ज्ञान नहीं है कि कोई ठीक-ठीक बता दे कि आज से 10 लाख दिन पहले कौन सी तिथि थी—- उस रात चंद्रमा पूर्ण गोल था या फिर चतुर्दशी की भाँति कुछ कटा हुआ।

ऋग्वेद में समय सारणी

Units of Time ऋग्वेद में समय सारणी कैसी थी यह अब जाना नहीं जा सकता लेकिन ज्योतिष का विकास उस समय भी हो गया था इसमें कोई संदेह नहीं क्योंकि इन 3 इकाइयों के संबंध की खोज ही से ज्योतिष की उत्पत्ति हुई और यदि किसी समय की पुस्तक में हमें यह लिखा मिल जाता है कि उस समय महीने में और साल में कितने दिन माने जाते थे तो हमको उस समय के ज्योतिष के ज्ञान का सच्चा अनुमान लग जाता है।

ऋग्वेद हमारा सबसे पुराना ग्रंथ है, परंतु वह कोई ज्योतिष की पुस्तक नहीं है। इसलिए उसमें आने वाले ज्योतिष-संबंधी संकेत अधिकतर अनिश्चित से ही है। परंतु इसमें संदेह नहीं कि उस समय वर्ष में 12 महीने और 1 महीने में 30 दिन माने जाते थे। इस बात की प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए ऋग्वेद में एक स्थान पर लिखा है कि, “सत्यात्मक आदित्य/सूर्य का 12 डंडो से युक्त चक्र स्वर्ग के चारों और बारम्बार घूमता रहता है और कभी-भी पुराना नहीं होता। अग्नि इस चक्र में पुत्र के समान 720(360 दिन और 360 रात) निवास करते हैं”।

30 दिन मानने में कठिनाई

हमारे पूर्वजों को 1 महीने में ठीक 30 दिन मानने के लिए विशेष कठिनाई का सामना करना पड़ा होगा। वस्तुतः 1 महीने में लगभग 29.5 दिन होते हैं। इसलिए यदि कोई बराबर 30-30 दिन का महीना गिनता चला जाए तो 360 दिन में लगभग 6 दिन का अन्तर पड़ जाएगा। यदि पूर्णिमा से महीना शुरू किया जाए तो जब 12 वें महीने का अंत 30-30 दिन 12 बार लेने से आएगा तब आकाश में पूर्णिमा के बदले आधा चंद्रमा रहेगा इसलिए यह कभी भी माना नहीं जा सकता कि लगातार 12 महीने तक 30-30 दिन का महीना माना जाता था।

महीनों में दिनों की संख्या

अभी तक हमने महीनों का आंकलन किया, वैसे तो एक वर्ष में 12 महीने सिद्ध करने की गणना कैसे हुई इसके बारे में हम आगे चर्चा करेंगे लेकिन अभी हम महीने में दिनों का आंकलन करेंगे। पूर्णिमा से ही अधिकतर बातों का आंकलन हुआ है इसलिए यहाँ भी हम पूर्णिमा से ही बात को आरम्भ करते हैं। हालाँकि पूर्णिमा ऐसी घटना नहीं है जिसके घटित होने का समय केवल चंद्रमा की आकृति को देखकर कोई पल-विपल तक बता सके। यदि इस समय चंद्रमा गोल जान पड़ता रहा होगा और कुछ मिनट बाद भी वह गोल ही जान पड़ेगा। मिनटों की क्या बात; कई घंटों में अधिक अन्तर नहीं दिखाई पड़ता।

इसलिए एक महीने में 29.5 दिन के बदले 30 दिन मानने पर महीने, 2 महीने तक तो कुछ कठिनाई नहीं पड़ी होगी, परंतु ज्योंही लोगों ने लगातार गिनाई आरम्भ की होगी, उनको पता चला होगा कि प्रत्येक महीने में 30 दिन मानते रहने से साल भर में गणना और वेध (जो आँखों से दिखाई दे) में एकता नहीं रहती। जब गणना कहती है कि महीने का अंत हुआ तब आकाश में चंद्रमा पूर्ण गोल नहीं रहता; जब वेध बताता है कि आज पूर्णिमा है तब गणना बताती है कि अभी महीना पूरा नहीं हुआ।

अवश्य ही कोई उपाय रहा होगा जिससे लोग किसी-किसी महीने में केवल 29 दिन मानते रहे होंगे। इन 29 दिन वाले महीनों के लिए ऋग्वेद के समय में क्या नियम थे यह अब जाना नहीं जा सकता, परन्तु कुछ नियम रहे अवश्य होंगे। जैसे-जैसे समय का पहिया आगे खिसकता गया वैसे-वैसे भारतीय ज्योतिष में ऐसे पक्के नियम बन गए, कि लोग उन नियमों के दास बन गए; ऐसे दास कि आज भी हिन्दू ज्योतिषी तब ही पूर्णिमा मानते हैं जब उनकी गणना कहती है कि पूर्णिमा हुई, चाहे आँख से देखी बात कुछ बताये।

दुर्भाग्यवश गणना में ऐसा सुधार करना कि उससे वही परिणाम निकले जो आँखों से प्राप्त होता है- वर्तमानकालिक पंडितों को पाप-सा प्रतीत होता है। आँखों से देख कर भी झुठलाते चले जाना अभी इसलिए चले जा रहा है कि सूर्य-सिद्धांत के गणित से निकले परिणाम और आँखों-देखा हाल में अभी घंटे-2घंटे, आगे या पीछे पूर्णिमा बताने से साधारण मनुष्य सामान्य अवसरों पर गलती पकड़ नहीं पाता, इसलिए ऐसे ही काम चला जा रहा है।

हालाँकि ग्रहण बताने में एक घंटे की हेर-फेर बड़े ही आसानी से पकड़ी जा सकती है। परन्तु पंडितों ने, चाहे वो कितने ही कट्टर पुराने अपने मतलब को सिद्ध करने वाले हो, ग्रहणों की गणना आधुनिक पाश्चात्य रीतियों से करना आरम्भ कर दिया है। अच्छा आज का पंडित चाहे कुछ भी करे लेकिन ऋग्वेद के समय के लोग साल भर तक किसी भी तरह 30 दिन हर महीने न मान सके होंगे। सम्भवतः कोई नियम रहा होगा; ऐसे नियम वेदांग-ज्योतिष में दिए हैं। लेकिन अगर कोई नियम न भी रहा होगा तो कम-से-कम अपनी आँखों-देखी पूर्णिमा के आधार पर हमारे पूर्वज समय-समय पर 1-2 दिन छोड़ दिया करते रहे होंगे।

1 वर्ष में महीनों की गणना

यह तो हुआ महीने में दिनों की संख्या का हिसाब। सम्भवतः यह भी प्रश्न अवश्य उठा होगा कि एक वर्ष में कितने महीने होते हैं। इस प्रश्न को सुलझाने के लिए और अधिक समस्या पूर्वजों के सामने आयी होगी। पूर्णिमा की तिथि वेध (आसमान में आँखों से देखी हुई स्थिति) से निश्चित करने में 1-2 दिन की अशुद्धि हो सकती है। इसलिए वर्षा से लौट के आने तक की वर्षा के सभी दिन गिनते रहने से एक महीने के दिन बताने में ज्यादा गलती नहीं होती है। लेकिन यह पता लगाना कि वर्षा ऋतु कब आरम्भ हुई, या शरद ऋतु कब आयी, सरल नहीं है। क्योंकि, पानी किसी वर्ष बहुत पहले तो किसी साल बहुत बाद में गिरता है।

इसलिए वर्षा ऋतु के आरम्भ को वेध से ऋतु को देखकर निश्चित करने में 15 दिन की गलती हो जाना स्वभाविक है। एक लंबे समय तक पता ही नहीं चला होगा कि 1 वर्ष में ठीक-ठीक कितने दिन होते हैं। शुरुआत में लोगों की यही धारणा होगी कि एक साल में महीनों की संख्या कोई पूर्ण संख्या होगी। 15 दिनों की हेर-फेर होने पर भी 11 और 13 के पास 12 ही पूर्ण संख्या है, इसलिए साल में 12 महीनों का मानना स्वभाविक था। एक लंबे समय तक यही होता रहा होगा कि पूर्वज बरसातों से ही मोटे हिसाब से महीनों को गिनते रहे होंगे और समय बताने के लिए कहते रहे होंगे कि इतने मास बीते।

ज्योतिषीय ज्ञान में वृद्धि

जैसे-जैसे ज्योतिष के ज्ञान में तथा राज-काज, सभ्यता, आदि में वृद्धि हुई होगी, तैसे-तैसे एक लंबे समय तक लगातार गिनती रखी गई होगी और तब पता चला होगा कि वर्ष में कभी 12 और कभी 13 महीने रखना चाहिए, अन्यथा वर्षा उसी माह में प्रत्येक वर्ष नहीं पड़ेगी। उदाहरण के लिए, यदि इस साल वर्षा सावन-भादों में थी और हम आज से बराबर 12-12 महीनों का साल मानते चले जाएं तो कुछ सालों बाद वर्षा कुआर-कार्तिक में पड़ेगी; कुछ और सालों बाद वर्षा अगहन-पूस में पड़ेगी।

ऋग्वेद के समय में अधिमास

पूर्वजों ने 13वां महीना लगाकर महीनों और ऋतुओं में अटूट सम्बंध जोड़ने की रीति ऋग्वेद के समय में ही निकाल ली थी। क्योंकि ऋग्वेद में एक स्थान पर लिखा हुआ है जोकि इसकी प्रमाणिकता को सिद्ध करता है। लिखा है- “जो व्रतावलंबन करके अपने-अपने फलोत्पादक 12 महीनों को जानते हैं और उत्पन्न होने वाले 13 वें महीने को भी जानते हैं,,,,,”। इससे पता चलता है कि पूर्वज 13 वां महीना बढ़ाकर वर्ष के भीतर ऋतुओं का हिसाब ठीक रखते थे।

निष्कर्ष

अगर आप ज्योतिष को मिथ्या समझते हैं तो यह आपकी गलती नहीं है, हमारे सामने ज्योतिष को इस तरह प्रस्तुत किया है कि सब बकवास-सा लगता है और जो लोग विश्वास करते हैं वो ऐसे फिजूल नियमों में फंस जाते हैं जिनका ज्योतिष से दूर-दूर तक का कोई नाता नहीं है। इसलिए आप भी भटक-भटक कर ज्योतिष को और ज्योतिषाचार्यों को खरी-खोटी सुनाने से चूकते नहीं हैं। लेकिन ज्योतिष विज्ञान आज भी कितना महत्वपूर्ण है इसका पता तो इसके बारे में जानकार ही चलेगा।

विनम्र निवेदन

महीनों का नामकरण कैसे हुआ?, दिनों के नामों का किस प्रकार चयन हुआ?, क्या 13 वां महीना सत्य में अपना अस्तित्व रखता था। आदि ऐसे ही तथ्यों को समझने के लिए आपको महीनों के प्राचीन नाम वाला लेख अवश्य पढ़ना चाहिए। आपसे यह निवेदन है कि आपको यह जानकारी पसंद आती है तो मुझसे जुड़िये ताकि इसी तरह की जानकारी आपको सबसे पहले मिल सके।

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ज्योतिष क्या है?

एक वैज्ञानिक रूप से किया हुआ विश्लेषण जो आपकी सभी समस्याओं का समाधान करता है।

क्या ज्योतिष सत्य है?

निःसंदेह एकदम सत्य जिस ज्ञान को एकत्रित करने में कई ऋषि-मुनियों का जीवन व्यतीत हो गया उस पर हम किस प्रकार संदेह कर सकते हैं।

ज्योतिष की उत्पत्ति कैसे हुई?

सर्वप्रथम ज्ञान ब्रह्मा जी को ही था उन्हीं से नारद, सूर्य, वशिष्ठ, शौनक इत्यादि के माध्यम से समाज में उभर कर आया।

ब्रह्मा कौन है?

मेरे मतानुसार कोई देव या मनुष्य नहीं बल्कि परमसत्ता का नाम जिसका नामकरण भी मानव ने अपने विवेकानुसार किया है।

ज्योतिष के अनुसार भविष्य कैसे पता करें?

ज्योतिष भविष्य बताने का दावा कभी नहीं करता है बल्कि उचित कर्म करने का रास्ता प्रशस्त करता है।

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