चिंतन और चरित्र शब्द का भी व्यापक अर्थ लेना होगा, पुरुषार्थ को सामने रखकर ही चरित्र सँवारा जा सकता है। मनुष्य का सबसे बड़ा पुरुषार्थ क्या है? मनुष्य को उस पुरुषार्थ की सिद्धि के योग्य बनाना ही शिक्षा का उद्देश्य है। प्रत्येक मनुष्य की आत्मा स्वयं को ढूंढ रही है पर हमको इसका पता नहीं जब कोई अभिलषित वस्तु मिल जाती है तो थोड़ी देर के लिए सुख का अनुभव होता है। सब क्षणभर का सुख पाने की खोज में ही कार्यान्वित है। ऐसी दशा में आपस में संघर्ष होना स्वभाविक है। यदि धर्म-बुद्धि जगायी जाए और सब अपने-अपने कर्तव्यों में तत्पर हो जाएँ तो विवाद की जड़ ही कट जाए और सबको अपने उचित अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाएँ।
विषय सूची
व्यवहार
चिंतन और चरित्र लोग हमारे साथ कैसा व्यवहार करते हैं इसकी ओर कम और हम खुद औरों के साथ कैसा आचरण करें इसकी ओर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। हमारे व्यवहार में जो कुछ है वह हमारे विचारों की ही देन है। अच्छे विचार ही अच्छे आचरण के रूप में प्रकट होकर हमारी आदत बन जाते हैं। अच्छी-अच्छी आदतों से मिलकर ही हमारा चरित्र बनता है। हमारा चरित्र ही हमारा व्यक्तित्व है और वही हमारी पहचान भी है। कुलमिलाकर कोई भी व्यक्ति अपने व्यवहार से ही जाना-पहचाना जाता है। हमारे कार्य और व्यवहार में हमारे भीतर संजोए गए सद्गुण ही प्रकट होते हैं। इसलिए हमेशा अच्छे सद्गुणों के प्रति सजग और सावधान रहना चाहिए।
चरित्र
चरित्र ही वह पूँजी है जिसके आधार पर व्यक्तित्व का सुगठन होता है। चरित्र निर्माण के छोटे-छोटे सूत्र, नीति के दोहे एवं गुणों का परिपालन आदि एक आदर्श व्यक्तित्व निर्माण की पृष्ठभूमि बनाते हैं। हमारा मन अत्यधिक प्रचंड शक्ति का स्त्रोत है। इसमें एक शक्तिशाली विचारतंत्र, एक अविकसित कम्प्यूटर है। यदि इसका संचालन करना हमें आ गया एवं मोबाइल संवर्द्धन की कला आ गई तो रास्ते की कोई भी बाधा हमारा विकास रोक नहीं सकती। महापुरुषों का जीवन इसका साक्षी है।
चिंतन और चरित्र
चिंतन और चरित्र दोनों शब्द एक-दूसरे के पूरक हैं। एक-दूसरे के प्रति अनन्य रूप से आश्रित इन दोनों शब्दों पर ही व्यक्ति का व्यक्तित्व निर्भर करता है। हम जैसा सोचते हैं वह हमारा चिंतन है और अपने चिंतन के अनुरूप जो कार्य एवं व्यवहार हम करते हैं वह हमारा चरित्र है। व्यक्ति मन में जैसे विचार रखता है या जो चिंतन करता है उसी के अनुरूप उसकी वाणी मुखरित होती है। वह जैसा बोलता है वैसा ही व्यवहार करने लगता है। व्यक्ति का कार्य-व्यवहार उसकी आदतों में ढल जाता है। उसकी आदतें ही उसके चरित्र का निर्माण करती हैं तथा व्यक्ति का चरित्र ही उसका व्यक्तित्व है।
इसी चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करने की बात शास्त्रों में की गई है इसलिए हमें अपने चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। धन तो आता है और चला जाता है, एक बार गया हुआ धन पुनः प्राप्त किया जा सकता है किन्तु यदि चरित्र नष्ट हो गया तो उसे नष्ट ही हुआ समझें। उसे पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता। एक कहावत भी है कि धन गया कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया और यदि चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया। इतने महत्वपूर्ण चरित्र के प्रति हमेशा जागरूक रहने की आवश्यकता है। एक रीति यह भी है कि रघुवर रीति सदा चली आई प्राण जाए पर वचन ना जाए।
आजकल ऐसे व्यक्ति देखने को भी नहीं मिलते और हैं भी तो न के बराबर। वो कहते है ना अपनी इज्ज़त अपने हाथ में हमारा कल का आचरण हमारे हर क्षण के चिंतन से निर्धारित होता है।
आचरण
आचरण की सभ्यतामय भाषा सदा मौन रहती है। इस भाषा का निघण्टु शुद्ध श्वेत पत्रों वाला है और इसमें नाममात्र के लिए भी शब्द नहीं। यह सभ्याचरण नाद करता हुआ भी मौन है, व्याख्यान देता हुआ भी व्याख्यान के पीछे छिपा है, राग गाता हुआ भी राग के सुर के भीतर पड़ा है। मृदु वचनों की मिठास में आचरण की सभ्यता मौन रूप से खुली हुई है। नम्रता, दया, प्रेम और उदारता सब के सब सभ्याचरण की भाषा के मौन व्याख्यान है। मनुष्य के जीवन पर मौन व्याख्यान का प्रभाव चिरस्थायी होता है और उसकी आत्मा का एक अंग हो जाता है।
न कला, न नीला, न सफेद, न पूर्वी, न पश्चिमी, न उत्तरी, न दक्षिणी, बे नाम, बे निशान, वे मकान विशाल आत्मा के आचरण से मौनरूपी सुगंधि सदा प्रसारित हुआ करती है। इसके मौन से प्रसूत प्रेम और पवित्रता धर्म सारे जगत का कल्याण करके विस्तृत होते हैं। इसकी उपस्थिति से मन और हृदय की ऋतु बदल जाती है। तीक्ष्ण गरमी से जले-भुने व्यक्ति आचरण के काले बादलों की बूंदा-बादी से शीतल हो जाते हैं। आचरण के नेत्र के एक अश्रु से जगत भर के नेत्र भीग जाते हैं। आचरण के आनंद -नृत्य से उन्मदिष्णु होकर वृक्षों और पर्वतों तक के हृदय नृत्य करने लगते हैं।
आचरण के मौन व्याख्यान से मनुष्य को एक नया जीवन प्राप्त होता है। नये-नये विचार स्वयं ही प्रकट होने लगते हैं। सूखे काष्ठ सचमुच ही हरे हो जाते हैं। नये नेत्र मिल जाते हैं | मौन रूपी व्याख्यान की महत्ता इतनी बलवती, इतनी अर्थवती और इतनी प्रभावती होती है कि उसके सामने क्या मातृभाषा, क्या साहित्यभाषा और क्या अन्य देश की भाषा सब की सब तुच्छ प्रतीत होती हैं। अन्य कोई भाषा दिव्य नहीं, केवल आचरण की मौन भाषा ही ईश्वरीय है। विचार करके देखो, मौन व्याख्यान किस तरह की नाड़ी-नाड़ी में सुन्दरता को पिरो देता है।
निष्कर्ष
इसलिए अपनी महानता को व्याख्यान के माध्यम से नहीं वरन् आचरण के माध्यम से बताने का प्रयत्न करें। वो पुरुषार्थ ही क्या जो वाणी के माध्यम शब्द-रूपी बाण से सिद्ध हो; पुरुषार्थ तो सदाचरण और सत्कर्म से परिलक्षित हो उसी को महानता कहते हैं। और ये महानता कई वर्षों में सिद्ध होती है, मात्र एकदिन में या कुछ समय में व्यवहार को नहीं बदला जा सकता; महान व्यक्तित्व महान कर्तव्यों की माँग भी करता है।
जिस प्रकार सफेद कपड़े पर दाग साफ दिखाई देता है और देखने वाले का ध्यान कपड़े की सम्पूर्ण सफेदी को छोड़कर मात्र एक छोटे से दाग पर ध्यान केंद्रित रहता है ठीक उसी प्रकार चरित्र पर लगा लांछन व्यक्ति को समाज में गंदी नज़र से देखने पर मजबूर करता है तथा समाज का ध्यान भी हमेशा व्यक्ति के उसी कृत्य पर रहता है फिर चाहें व्यक्ति कितना भी स्वच्छ होने का प्रयास करे। इसलिए चरित्र स्त्री की आबरू के समान संजो के रखना होता है जिसमें सहयोग हमारा चिंतन ही करता है।
व्यक्ति समय के साथ समय-पास करेगा तो समय, समय आने पर व्यक्ति का समय-पास कर देगा; अब ये तो व्यक्ति के उपर निर्भर है कि आनन्द की अनुभूति क्षणभर के लिए चाहिए या हमेशा के लिए।
ललित कुमार
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